Spread the love

Question 36 —–भगवान, मैं संन्यास तो लेना चाहता हूं पर संसार से बहुत भयभीत हूं। संन्यास लेने से मेरे चारों ओर जो बवंडर उठेगा उसे मैं झेल पाऊंगा या नहीं? आप आश्वस्त करें।

संन्यास का अर्थ है, असुरक्षा में उतरना। संन्यास का अर्थ है, अज्ञात में चरण रखना। संन्यास का अर्थ है, जाने-माने को छोड़ना, अनजाने से प्रीति लगाना।
आश्वस्त तो तुम्हें कैसे करूं? बवंडर तो उठेगा। मेरा आश्वासन झूठा होगा। मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि बवंडर निश्चित उठेगा, उठना ही चाहिए। अगर न उठे तो संन्यास पकेगा कैसे? जैसे धूप न निकले और सूरज न आए तो फल पकेंगे कैसे? आंधी न उठे, तूफान न उठे तो वृक्षों की रीढ़ टूट जाएगी। आंधी और तूफान के झोंके सहकर ही वृक्ष सुदृढ़ होता है।
बवंडर तो उठेगा। इतना ही आश्वस्त कर सकता हूं कि बिल्कुल निश्चित रहो, ज़रा भी चिंता न करो, बवंडर उठेगा ही। और तुमने जितना सोचा है उससे बहुत ज्यादा उठेगा। और उठता ही रहेगा; ऐसा नहीं कि आज उठा और कल शांत हो जाएगा। तुम जब तक जियोगे बवंडर उठता ही रहेगा और बवंडर रोज बड़ा होता जाएगा। संन्यास की परिपक्वता ही तब होती है। चुनौतियों में ही आत्मा का जन्म होता है। जितनी बड़ी चुनौतियां हों उतनी बड़ी आत्मा का जन्म होता है। आत्मा ऐसे ही नहीं पैदा होती। अपने को बचाए रखो, सुरक्षित सब तरह से, तो आत्मा नहीं पैदा होगी, तुम्हारे भीतर एक फुसफुसापन पैदा होगा। संघर्ष में तुम्हारे भीतर कुछ सघन होगा। संघर्ष में तुम्हारे भीतर कुछ सबल होगा। इसलिए जो बवंडर उठाएंगे वे शत्रु नहीं हैं, मित्र हैं। मित्र ही उठाएंगे। शत्रु मत समझ लेना उन्हें, वे तुम्हारे मित्र हैं। गालियां पड़ेंगी, पत्थर भी पड़ सकते हैं। लेकिन सौभाग्य मानना उस सबको; वरदान मानना, परमात्मा का प्रसाद मानना। ऐसे ही कोई व्यक्ति आत्मवान होता है।
लोगों की बड़ी अनुकंपा है कि जब भी वे देखते हैं कहीं आत्मा का जन्म हो रहा है तो सब तरफ से सहयोग करते हैं। फिर जैसा वे सहयोग कर सकते हैं वैसा करते हैं; जैसा जानते हैं वैसा करते हैं। मगर तुम्हारे अहित में नहीं है।
तुम पूछते हो, मैं संन्यास तो लेना चाहता हूं पर संसार से बहुत भयभीत हूं। अगर संन्यास ऐसा हो कि जिसमें ज़रा भी भय न मालूम पड़े तो उसे लेने का प्रयोजन क्या होगा? वह एक नयी सुरक्षा होगी, एक नया बैंक-बैलेंस होगा।
नहीं, अड़चनें आएंगी, बहुत आएंगी। कल्पनातीत अड़चनें आएंगी। जिन दिशाओं से तुमने कभी न सोचा था कि अड़चनें आ सकती हैं उन दिशाओं से आएंगी। जिन्हें तुमने अपना माना है उनसे आएंगी। और ध्यान रखना, नाराज न होना, रुष्ट न होना, बेचैन न होना, अशांत न होना, क्रुद्ध न होना। क्योंकि अंत में तुम पाओगे कि उन्हीं सब चुनौतियों ने तुम्हें जीवन दिया, जीवन को निखार दिया, धार दी, तुम्हारी प्रतिभा को चमकाया।
कीमत चुकानी होती है। और जितने बड़े सत्य को खोजने चलोगे उतनी अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी। सत्य मुफ्त नहीं मिलता। परम सत्य को पाने के लिए तो सब कुछ दांव पर लगा देना होता है। और संन्यास परम सत्य को पाने का प्रयास है। अभीप्सा है, आकांक्षा है–अनंत को अपने आंगन में बुला लेने की। अभीप्सा है, प्रार्थना है–विराट को अपने प्राणों में समा लेने की। तैयारी करनी होगी। जुआरी होना होगा। व्यवसायी संन्यासी नहीं हो सकता। जो दो-दो कौड़ी का हिसाब लगाए और जो सदा लाभ ही लाभ की सोचे वह संन्यासी नहीं हो सकता। यह तो दांव की बात है। इसलिए मैं फिर कहता हूं, जुआरी ही संन्यासी हो सकता है जो सब दांव पर लगा दे–इस पार या उस पार।
ओशो ♣️

https://healthcareinhindi.com/

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!